Insomnia is what which doesn't allow me to back to my bed,,,thinking and engulfing into the provoking thoughts are the weapons the society has given me,,,I just revolve around them, always struggling and trying to find a way, to find a solution to treat such tragic ailments,,,and Insomnia helps me to get through...
26.9.11
"Be Cognizant"
18.9.11
मूलभूत गुण 'क्षमा'
उस दिन जब घर काम से थका हुआ लौटा तो माहौल गर्म दिखाई पड़ रहा था, श्रीमतिजी कि ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने कि आवाज़ बाहर तह सुनाई पड़ रही थी, में तुरंत ही समझ गया कि ज़रूर आज घर सूरज आया होगा. सूरज मेरे कॉलेज के दिनों का दोस्त था, कॉलेज के बाद लगभग 2 वर्ष हमारी बोलचाल बंद हो गई थी, लेकिन उन दिनों कि दूरियों ने हमारे रिश्ते और प्रगाढ़ बना दिए. मैं जिस कंपनी में दस वर्षो मैं एरिया मैनेजर ही बन पाया वहीं सूरज आठ सालों नेशनल सेल्स मैनेजर हो गया है और उसका मेहनताना भी मुझसे दस गुना है, किस्मत इनसान को कहाँ से कहाँ ले जाती है सोचते हुए अन्दर आया तो श्रीमतिजी ने चिल्ला कर कहा- "अब फिर किस्मत को दोष मत दिजियेगा". मैं हक्का-बक्का राह गया-"सोच तो मैं रहा था इसे कैसे पता चला", मैंने सोचा. "और नहीं तो क्या - मुल्लाह कि दौड़ मस्जिद तक!" हमेशा कि तरह कान में रुई डाल मैं जल्दी से खाना खाकर
बिस्तर पे लेट गया. पत्नी के शब्द हर बार कुछ समय के लिए मेरे कानों में गूंजते थे फिर नींद लगते ही सब कुछ पहले कि तरह हो जाता था, परन्तु उस दिन नींद भी मुझसे रूठि थी, दिमाग बार-बार रिवाइंड होना चाह रहा था पर में उसे ऐसा करने से रोक रहा था, लेकिन उसके आगे मेरा ज़ोर नहीं चल सका और मैं चौदह वर्ष पीछे अपनी डिग्री के वक्त में भटकने लगा---
---सूरज उस वक्त कक्षा का सबसे समझदार विद्यार्थी था, कार्य कुशल और साथ में मेहनति भी, ज़्यादा दोस्ती करना उसे पसंद नही था, उसका मानना था कि भले ही एक हो लेकिन सच्चा हो. हैंड्सम होने के कारण लड़कियाँ भी उसे कम अप्रोच नही करती थी पर उसका लक्ष्य पक्का था इसलिए वो उन्हें भाव नहीं देता था जिसका फायदा हम उठा लिया करते थे.
पता नहीं उसने मुझमें क्या देखा था कि उसने मुझे अपना दे!स्त चुना, मुझे उसके साथ बिताया एक-एक पल आज भी याद है, वो हमेशा दिनभर का प्रोटोकॉल बना कर दिन कि शुरुवात किया करता था जिसमे कुछ वक्त दोस्तों के लिए भी होता था, पर उस अल्प वक्त के घंटे या कहिये चंद मिनट कभी भी एक समान नही होते थे, उसकी इस आदत से सभी दोस्त परेशान रहा करते थे, क्योंकि हमारे द्वारा बनाया गया प्लान वो हमेशा चौपट किया करता था चाहे वो फ़िल्म जाने का हो या फिर चाट-चौपाटी जाकर चाट खाने का, फिर भी दिनभर में जितना समय वो हमारे साथ बिताता था वो दिन के बेहतरीन लम्हे होते थे क्योंकि वो प्रजेंट में विश्वास करता था, हमेशा कहता था 'जी ले ये पल यारा'. मुझे मेरे एक और मित्र ने खुशी और सम्मान से जीवन व्यतीत करने के तीन मूलभूत सिद्धांत बताये थे - प्यार, शांति और क्षमा जिनमें से क्षमा में ख़ुद में कभी आत्मसात नहीं कर पाया. फाइनल ईयर कि बात हे में एक दिन चौराहे पर सिटी बस का इंतज़ार कर रहा था, वहीं पास में सूरज का घर था, पर मैंने उसे उसके घर जाकर तंग करना उचित नहीं समझा, गुजरते राह्गीरो को देखना मेरा शौक हो गया था जब से पिता ने पाठ पढ़ाया था कि "ज़िंदगी में आदमी काफी कुछ अपने ओब्ज़र्वशन से सिख जाता है" सो में ओब्सर्व करने में लगा था उसी दौरान सूरज उस भारी ट्रैफिक के बीच से अपनी बाइक से गुजरा और कुछ पलों के लिए हमारी निगाहें भी मिली लेकिन उसने तुरंत ही मुँह फेर लिया ओर चलता बना में उसे आवाज़ ही देता रह गया. मैं तब 'hasty decisions' कहें तो बिना सोचे समझे फैसले करने में माहिर था, और माफी का गुण तो मुझमें था ही नहीं. उस दिन के बाद लगभग दो वर्ष मैंने उससे बात नही कि, बस एक ही बात मुझे खट्कती थी कि सूरज ने मुझे देखते हुए भी अनदेखा किया तो किया कैसे, क्या उस दिन मुझसे भी ज़रूरी किसी दोस्त से मिलना जरूरी था, या फिर दोस्ती से ज़्यादा बड़ी पढ़ाई होती है जैसे अनेको प्रश्न मेरे दिमाग में उठते रहे. उन दो वर्षों में उसने अपना पी.जी भी किया, शुरुवाती दिनों में मुझे मनाने के कुछ प्रयास भी किए पर बाद में वो वैसा ही हो गया - हंसता, खिल्खिलाता कुछ नए दोस्तों के साथ, उन दिनों उसकी ज़िंदगी में एक लड़की भी आई 'प्रिया' जिसने उसकी ज़िंदगी को नया आयाम दिया, उसने अपने पी.जी के अन्तिम वर्ष यूनिवर्सिटी में टॉप किया जबकि प्रिया दूसरे स्थान पर रही थी. एक दिन प्रिया ने बातों हो बातों में कहा था कि टॉप करना उसका सपना था जिसे वो कैसे टूटने दे सकती थी. त्याग क्या होता है उस दिन मुझे समझ में आया था और वो भी तब वो महज उसकी दोस्त हुआ करती थी, वो सूरज कि तरफ़ से सूरज और मेरे रिश्ते के सुधार हेतु आई थी. परिणाम घोषित होने के कुछ दो माह पश्चात सूरज ने प्रिया को अपनी अर्धांगिनी बना लिया और एक अन्तिम प्रयास मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर किया, उन दो वर्षों में सच पूछो तो मैं एक रात भी चैन से सो नही पाया था. सूरज के कर्म उसे हमेशा सुर्खियों में बनाये रखते थे, जो मुझे परेशान भी किया करते थे, कई बार मुझे पश्चाताप भी हुआ लेकिन उससे बात करने कि हिम्मत नही जूटा सका था.
एक दिन अचानक सुबह-सुबह पोस्ट-मेन को दरवाजे पर देख हैरानी हुई, लिफाफा खोल कर देखा तो उसमें सूरज कि शादी का निमंत्रण पत्र था, वधू के नाम कि तरफ़ नजर दौडाने पर मेरी आंखों में पानी झलक आया, मन से आवाज़ आई 'साला हमेशा ही अचीवर रहेगा', प्रिया के नाम ने दिल गद-गद कर दिया था.
हालाँकि निमंत्रण कुछ दिन बाद का था पर में तुरंत ही ख़ुद को वहाँ जाने से रोक ना सका. दो सालों बाद सूरज को देखकर मानो आत्मा तृप्त हो उठी, उसके चहरे पर मुस्कान के साथ-साथ क्षमा का भाव भी स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ रहा था, जिसने मुझे और शर्मिंदा कर दिया था, शादी के दिन दूल्हा-दुल्हन से जब मिलने स्टेज पर गया तो दुल्हन ने टांग खिंचते हुए कहा कि-"भाई अब आपके भी कुँवारे रहने के दिन लद चुके हैं", मानो प्रिया ने दिल के सुरीले तार को मानो छू सा लिया था. माँ अकसर कहा करती थी बेटा वो शर्माजी कि बेटी देख लो शिक्षित और गुणी है, मिश्राजी का परिवार भी अच्छा है बेटी भी एम.बी.ए है. मै रहा सिर्फ़ ग्रेजुएट अपने से ज़्यादा पढी-लिखी का तो सवाल ही नही उठता था, 'शर्माजी कि ही बेटी से ही संतुष्ट होना पड़ेगा' मैंने सोचा था. इतने में शर्माजी कि बेटी आ ही गई और बोली - "क्या आज नींद नही आ रही है?" "अच्छे भले सपने कि बारह-तेरह कर दी", मैंने सोचा. "श्रीमतिजी आपके भाषण के बाद नींद आ सकती हे भला", मैंने कहा. "चलो-चलो तुमसे तो बात करना ही बेकार है", कहते हुए करवट बदलकर श्रीमतिजी फिर सुनहरि यादों में मुझे छोड़ सो गई.
आज जब पीछे देख कर सोचता हूँ तो हमें वापस जुडे आठ साल हो चुके हैं और हाँ सूरज कि नौकरी भी मैंने ही अपनी कंपनी में लगवाई थी, प्रिया को प्रोडक्शन में अच्छी नौकरी मिल गयि थी, देखा जाए तो सूरज से दो वर्ष पूर्व मैंने काम आरंभ किया था लेकिन आज वो मुझसे पद में भी आगे है, दौलत में भी और दिल का भी धनी है. उसका एक गुण हमेशा से क्षमा रहा है, वो किसी कि भी गलती पर उसे दोष नही देता था सब को क्षमा कर दिया करता है, क्या सिर्फ़ इसी गुण के कारण कोई इतना आगे बढ़ सकता है? हाँ शायद यही गुण आदमी को व्यक्तिगत तथा व्यव्सायिक जीवन में सफलता, प्रशंसा तथा सामाजिक जीवन में स्थान दिलाता है.
मैंने तो अपने माता-पिता तक को नही छोड़ा उन्हें भी दोषी करार देते हुए मुझसे दूर रहने कि सज़ा सुना दी. इस कारण आज मैं बौद्धिक तथा नैतिक सहारे से वांछित हूँ, अपने दायित्वों को भी सही ढंग से निभा नही पा रहा हूँ "भला फिर ये शर्माजी कि बेटी का क्या दोष", मैंने सोचा. "क्या कहा?" करवट बदलते हुए फिर आवाज़ आई.