2.4.11

"उसने तो कहा था"


शायद ही ऐसा किसी ने किया होगा जैसा उस दिन उसने किया था. अपनी शादी के रिसेप्शन में स्टेज पर बैठी, गहनो और फूलों से सजी वो किसी परी से कम नही लग रही थी. छवि नाम था उसका. पहले इधर-उधर देखती फिर मुझे स्टेज पर आने को इशारा करती, जैसे मेरे स्टेज पर ना जाने से उसकी शादी अधूरी रह रही हो, काफ़ी देर ये सिलसिला जारी रहा. बहुत बुलाने पे भी मेरे ना जाने पर वो ख़ुद ही कुछ पलों के लिए स्टेज से नीचे उतर आई, मैं पहली पंक्ति में ही बैठा था. सब ये देख हक्के-बक्के रह गए थे-"बेटा कहाँ जा रही है", उसकी माँ ने संदेहादास्पद तरीके से पूछा. बिना कुछ जवाब दिए वो मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, मेरा हाथ पकड़ा और स्टेज पर आने को कहा, मैं भी भोचक्का रह गया था, 'भला कोई लड़की अपने विवाह के रिसेप्शन में ऐसी भी कोई हरकत कर सकती है', मैंने सोचा. मैं हथकड़ी लगे अपराधियों कि तरह उसके पीछे-पीछे स्टेज पर जा पहुँचा जहाँ उसने अपने पतिदेव से मुझे मिलवाया."ये हमारे सबसे अच्छे दोस्त है, काफी बार बुलाने पर भी आ नही रहे थे इसलिए ख़ुद उठ कर जाना पड़ा", छवि ने अपने खिल्खिलाते अंदाज़ में कहा. "बधाई हो, बहुत बहुत बधाई, अब इनसे पहली बार तो मिल नही रहे हैं, मैंने दुल्हे से हाथ मिलते हुए कहा. "अरे हाँ आप लोग तो पहले मिल चुके हैं! अमन चलो इधर खड़े हो जाओ, आज एक आखिरी बार फोटो खिंचवाते हैं", छवि ने कहा. उसके इन शब्दों ने मुझे थोड़ा असहाय कर दिया, और हाँ उसके पति को भी, पर अंततः चेहरे पर झूठी मुस्कान लेते हुए मैंने एक फोटो ख्निचवा ही लिए. पंक्ति में वापस बैठकर जब उससे एक दो बार नजरें मिली तो मैं अपने कॉलेज के दिनों कि यादों में चला गया.

"लव यू जानू लव...लव यू...लव यू," फ़ोन रखते हुए छवि कह रही थी. "बस अब कितनी बार कहोगी, मैंने टोकते हुए कहा. "जब तक तुम नही कहोगे". "ठीक हे बाबा-आई लव यू, तो अब रखूँ". "तुम्हें तो बस फ़ोन रखने कि ही जल्दी पड़ी रहती है, मैं कुछ कहूँ उससे पहले फ़ोन कट चुका था. रात के तीन बज रहे थे, ग्रीष्मकालीन छहमासे कि बात है. सभी परीक्षा कि तैयारियों में लगे थे. खास कर छवि, उसे टॉप करने का बड़ा शोक था, किसी से एक नम्बर कम आने पर वो मेरे फ्लैट पे आकर कैसे बखेड़ा करती थी, मुझे आज तक याद है, पूरे सिस्टम कि बुराई कर अंततः वो अपनी ख़ुद कि गलती स्वीकार कर ही लेती थी, उसके इसी गुण से में सर्वाधिक प्रसन्न हुआ था. अपने छटे छह्मासे के परिणाम से बेहद संतुष्ट वो मेरा परिणाम पूछना भूल ही गई थी. "अरे हाँ तुम्हारा क्या हुआ, मैं तो पूछना ही भूल गई". मेरे अजीबो-गरीब तरीके से मुँह बनाने पर वो समझ गई, बोली-"फिर से फैल", ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी मेरी ओर हथेली दिखाते हुए. चाहे मेरा परिणाम अच्छा नही आया करता था लेकिन उसकी छोटी सी मुस्कान के भी तब बहुत माईने हुआ करते थे. सातवें छह्मासे के बीच एक दिन जब मेरे फ्लैट पर आई थी, चाय बनाने के दौरान मुझे कहने लगी - "देखो अमन अब हमारे रिश्ते को 2 साल होने चले हैं, मुझे तुम पर विश्वास है, ज़िंदगी भी मैं तुम्हारे साथ बिताना चाहती हूँ, लेकिन आजकल रिश्ते जोड़ने से पहले सबकुछ देखा जाता है-घर, परिवार, लड़का, लड़के कि आय, बैंक बैलेंस जैसी कई महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखा जाता है." "हाँ तो", दैनिक अखबार पढ़ते हुए मैंने कहा. "तो ये कि तुम मेरे पिताजी को अच्छी तरह से जानते हो वे ऐसे किसी लड़के के साथ मेरा रिश्ता नही जोड़ेंगे जो मुझसे पढ़ाई या किसी काम में भी पीछे हो". "कहना क्या चाहती हो", उसकी बातों को नजरअंदाज करते हुए मैंने कहा. "देखो अमन अब तुम्हें भी कुछ ना कुछ अच्छा करना होगा, तुम अपने लेखन के शौक को व्यव्सायिक दृष्टिकोण से क्यों नही देखते, कुछ अखबारों के लिए लिखना शुरू करो, धीरे-धीरे मुकाम तक पहुँच ही जाओगे, और मैं जो साथ हूँ. "मैं जो साथ हूँ", मैंने मुँह चिढाते हुए कहा था. "मैडम आप कि पढ़ाई कि तरह आसान नही है, लेखन के क्षेत्र में मुकाम हासिल करना". "पता नही कितने दिग्गज बैठे है?" बेचारी के लिए मैंने कुछ कहने को छोड़ा ही नही था-चाय पीकर चुपचाप जाती बनी.

अन्तिम छह्मासे में कैंपस कि तैयारीयाँ ज़ोरो पर थी, छवि अपना मोबाइल भी बंद रखती थी, क्योंकि उसे कैंपस कि तैयारी करनी हुआ करती थी, जिसपर मुझे और गुस्सा आता था. मैं अगली सुबह जैसे ही उसे डांट लगाने वाला रहता वो मुझे बाहों में लेकर सारा गुस्सा उतार दिया करती थी. एक दिन एक बड़ी आई.टी. कंपनी का कैंपस हमारे कॉलेज में आया, कैंपस सभी के लिए खुला था जिसकी चयन प्रक्रिया में बैठने मात्र कि पात्रता ही 70% थी, मैं और मेरे पूरे दोस्तों का समूह पात्रता हासिल नही कर पाया था . प्रथम चरण कि प्रक्रिया के बाद जब छवि चयन कक्ष से बाहर निकली तो हर बार कि तरह उसकी निगाहें मुझे ढूंढ नही रही थी बल्कि वो किसी और के साथ गप्पे हांक्ति हुई मेरे सामने से गुज़र गई. उस वक्त में क्यूँ चुप रहा था ये मैं आजतक नही जान पाया हूँ. कुछ दो घंटे बाद वो मुझे ढूंढते हुए मेरे फ्लैट पर आई - "कहाँ चले गए थे तुम, मैं तुम्हें कब से ढूँढ रही थी?" मेरे कुछ जवाब ना देने पर बोली-"अछा बाबा अब माफ भी कर दो", मैं फिर चुप रहा. "अच्छा मेरा यहाँ प्रथम चरण में चयन हो चुका है, अब द्वितिया और त्रतिय के लिए मुंबई बुलाया है," कहते हुए वो जाने के लिए खड़ी हो गई. "तुम्हें तो देर हो रही होगी ना," मैंने उसे कुछ देर ओर रोक लेने के रुप में कहा. "हाँ", कहते हुए गुस्से में वो भी निकल गई. अगले दिन मेरे फ़ोन लगाने तक वो मुंबई के लिए रवाना चुकी थी.

तीन दिन कि लंबी प्रक्रिया के बाद जब लौटी तो मैं उसे स्टेशन लेने गया. जहाँ मुझे देख उसका मुँह ही उतर गया, उसके साथ कैंपस वाले दिन देखा वो लड़का भी था. "ये समीर है", छवि ने उससे मिलवाया. "और समीर ये है हमारे क्लासमैट अमन". मेरे माथे कि लकीरें चौड़ी होती जा रही थी. "चलें समीर, अमन मैं तुम्हें फ़ोन करूँगी", कहते हुए वो स्टेशन से निकल गई. मैं तो उससे ये तक पूछना भूल गया था कि कैंपस में उसके क्या हुआ, ऐसे हालातों में भला ये किसे याद रहता. शाम तक इंतज़ार के बाद भी जब उसका फ़ोन नही आया तो मैंने ही फ़ोन लगाया लेकिन उसने पहली कुछ बार फ़ोन नही उठाया, फिर कई बार एंगेज आया और फिर उसने फ़ोन काटना शुरू कर दिया. होस्टल मिलने जाता तो या तो वो वहाँ होती नही थी, कभी अपने घर पर होती थी, या वो किसी से मिलना नही चाहती थी. अन्तिम कुछ दिनों में कॉलेज वो समीर के साथ आया करती थी और काम हो जाने पर निकल भी जाया करती थी. मैं धीरे-धीरे हताश और निराश होने लगा था, लेखन से भी मुझे चीढ होने लगी थी, माता-पिता के सम्मान को कई बार क्षति भी पहुँचाई थी.

ग्रेजुएशन के कुछ दो माह बाद मेरे पास एक एस.एम.एस आया - "छवि वेड्स समीर - 14 फेब - रिसेप्शन वेन्यु उत्सव गार्डन - यू आर हार्ट्ली इन्वाईटेड". एस.एम.एस पढ़ते ही मेरी आंखों से आँसू बहने लगे थे. मामूली हवा के झोंके से मैं फिर वास्तविक छवि से सामने आ गया. आज जब इस वाकिये कि गहराई में जाता हूँ तो मुझे अपनी ही गलती प्रतीत होती है, क्योंकि "उसने तो कहा था" पर मैं ही कुछ ना कर सका लेकिन उसने एक अन्तिम मौका भी नही दिया, ऐसे में उसका फैसला किस हद तक सही था?

24.1.11


...Recently on dec 21, i turned 23 & today i am 23 yrs 1 month n 3 day old. When i look back to c whether till nw, am i either moved towards smwhr can say ma destiny or nt thn instints says tht 'yeah u r', bt whn i think deeply with puttin sm duress ovr ma head thn wat i get is different....

...Now i am desperate 23, single, career is nowhere, i selected stream which'll nt goin to carrying me newhr, but still happy,,,,,,,,before smtym, "sometimes i blame ma environment, family members, economic probs for wat is happenin in ma life currently n other times ma frmds, family n faculties for nt suporting me:::But 1 day i heard d story of a persn who whn born, thot to change d wrld bt progresivly wid d age he restrict n regret to d country, to state, to city, to family n eventually to himsel, the story told to me by 'parakram sir' (one of d acquintd indoree transformr(human))....

...B4 hearin that story i always thot to change d persons n environ. arnd me, always thot tht why they r nt like me, why there n my vision r nt sm & d power comes frm within bcoz i comprehended tht i was right, honest n true but 1 thing is clear tht some power i dnt know frm where bt frm smwhr rulin this whole wrld,,,,,all d activities frm the rumbling of leaves to the cleakety-clack of typewriters,,,frm the catamenia of 'fillies' to the fault of the 'bozos' are under cntrl of him & he/she/it made 1 straight so definitly 2 wuld be a curve....

...I wasted ma full 4 years in search of sm private space bcoz i m humanphobic, xtrmly susceptibl to change. When u live in a family thn u shld'nt consider ursel an individual, i did it n nw i m alone, no 1 newhr to listen to me, i feel isolated nt only frm d family bt frm d whole human society....

...I aproched atlist 10 galz, all were ma gud frndz n so i vanishd evn ma frndshp nw,,,it is nt lyk that i m nt able to understnd thm bt i think they were nt the soulmats creaturd for me by the super power,,,i strongly believe tht if God seen sm wrth in designing ne lyf thn he only'll endorse u 2 propogate tht lyf....

Speaking abt prsnt - ya i can tell tht due to that super power nw i m cnsistntly finding the path towrds destintn, d journey makin ma lyf beter, worthful, wistful n evn wid surprises,,,i m improvn ma 'demeanor', changing ma 'xtravagant' habits,,,xplorin ma 'penchant' writing, writin more number of articles, short stories, journey depictions, trying to create ma own fan club, followers n lovers bt it tk sm tym n frm me perseverance, persistence n consistency which i m tyrin to 'put in' cent percent.

"N ya, whenevr u feel a requirement to change smthing, smbody, sm1 thn plz do change ursel"..................
""""Vinu""""