28.4.12

"गहराई की मजबूरी"


अबे ओ, बाहर निकल, कहाँ घुस रहा है वहाँ?
तू घुस जाएगा वहाँ तो मैं रहूँगा कहाँ?
तू तो साले पढ़-लिख कर घुस गया है नीचे,
चूहा है की सांप है बढ़ता है अँखियाँ मीचे।

ज़रा हम पर भी एहसान कर ओ मेरे आका,
थोडा कम पढ़-लिख, हमको मौका दे नहीं तो तेरी माका!
हम नयी पीढ़ी के लेखकों का सेक्स पर शोध है पुख्ता,
एक दफा जो हाथ शुरू हो नहीं है फिर वो रुकता।

वैसे डरूं में क्यूँ तुझसे पढ़ते हैं सब मुझको,
पर पढ़ना चाहिए मुझे जिन्हें वे सब पढ़ते हैं तुझको।
अब नहीं चेतेगा समाज तुझसे, दम नहीं है तुझमे, 
जो चाहूँगा मैं बेचूंगा युवा खून है मुझमे।

माने मेरी तो सुनले बन्दे मत घुसा कर इतना, 
निकल नहीं पाएगा तू फिर रोलेगा जितना।
चार दिन की लाईफ बची है अब करले तू मस्ती, 
सेक्स बेचकर नाम होगा मेरी होगी हस्ती।

तेरे जैसा खूब गया था मैं भी कभी भूतल में,
देखा वहाँ कोई नहीं है फिर आया मैं तल पे।
भूतल में परिवार का जब पोषण नहीं है होता, 
मिलना ही पड़ता सागर में नदी हो चाहे सोता।

23.4.12

क्या आप पढ़े-लिखे हैं???


लिखने के लिए लिखना ज़रूरी है, और पढ़ने के लिए पढ़ना।
न पढ़ना लिखने में काम आता है, और न पढ़ने में लिखना।
ये पढ़ने लिखने का खेल है ही निराला।
अगर पढोगे तो लिखोगे कब, और अगर लिखोगे तो पढोगे कब?
क्यूंकि पढ़ने को भी उतना ही है, और लिखने को भी उतना।


फिर भी देश में पढ़े-लिखों का % 75.06 हो गया। 
अब समझ नहीं आता की इन्होने पढ़ा कब और लिखा कब।
फिर कोई कहता है अपना निशाना मछली की आँख पर रखो।
मतलब या तो सिर्फ पढो या सिर्फ लिखो।  
और अगर ये सच है तो इससे साबित यह होता है की -
देश की 75.06% जनता कन्फ्यूज्ड है और प्रेक्टिकली भी ऐसा ही है,
चाहे पास बैठे किसी भी चंदजी से पूछलो।
वो कहेगा बनना तो था फलाना पर बन गया ढिकाना।


अब जब वक्त के बनाए गए इन ढीकानों पर शोध हुआ,
तो इनके खून में पूंजीवाद नाम का वायरस मिला,
जिसने इनके सेरिबेलम पर प्रहार किया,
और इनकी नियंत्रण और समन्वय की शक्ति को छीन लिया। 


मतलब देश में जितने अर्जुन बचे हैं वे अनपढ़ हैं,
और वे 21वीं सदी के महान सिद्धांत 'नो स्टडी नो कन्फ्यूज़न' पर चलते हैं,
और सेरिबेलम की सेहत बनाए रखते हैं।
ज़्यादातर इनमे गरीब किसान है,
लेकिन क्या ये भी पढ़-लिख गए हैं?
क्यूंकि ऐसा सुनने में आया है की पूंजीवाद नामक वायरस, 
सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों को अपनी चपेट में लेता है। 


लेकिन गाँव जाकर देखा तो स्कूल नामक संस्था थी ही नहीं, 
तो फिर ये ढोर चराने वाले पजेरो में कैसे घूमने लगे,
फिर ध्यान आये वो 75.06% ढिकाने जिनको नए ढिकाने
बनाने के एवज़ में मिलती है पूंजी,
और ऐसे ही फैलती है ये पूंजीवाद की कुंजी।